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विवाह मात्र दो शरीरों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों,सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिवेशों का मिलन है | इस मिलन से बने संबंध हमारे जीवन के हर सुख-दुख में हमारा साथ निभाते हैं | पर कभी-कभी एक क्षण ऐसा भी आता है कि इस विवाह से जुड़े रिश्ते के साथ जीवन जीना दूभर हो जाता है ,जो पति-पत्नी कल तक एक दूसरे के सुख-दुख में एक दूसरे के साथ थे ,वे अचानक एक -दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते और एक समय ऐसा आता है कि उनका एक छत के नीचे निर्वाह मुश्किल हो जाता है ,तब सिर्फ और सिर्फ एक ही रास्ता सूझता है ,और वो रास्ता है तलाक का ……! हमारे समाज में आज भी तलाक़शुदा स्त्री-पुरुष को इज्जत की दृष्टि से नहीं देखा जाता | जहां तक मेरा मानना है कि कोई भी स्त्री ताबतक अपना संबंध बचाती है जब तक की एकदम से असहनीय न हो जाए | तलाक की बात करना जितना आसान लगता है वास्तव में यह उतना ही कठिन व तकलीफ़देह होता है | तलाक की प्रक्रिया इतनी जटिल व लंबी होती है कि व्यक्ति मानसिक रूप से टूट जाता है ,और इसका सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव तो बच्चों पर पड़ता है ,अगर बच्चे नहीं भी हैं तो भी वह सामाजिक उपेक्षा का भी कारण बनता है | ऐसे में प्रयास तो यही करना चाहिए की आपसी सूझबूझ व सहयोग से झगड़ों का निबटारा कर लिया जाए | लेकिन कई बार स्थिति बेकाबू हो जाती है और उन परिस्थितियों में तलाक ही उचित व अंतिम विकल्प बच जाता है | जहां एक ओर स्त्रीयों ने पढ़-लिख कर अपना एक अलग मुकाम बनाया है तो जाहीर है उनकी सोच में भी बहुत अंतर आया है ,वही दूसरी ओर पुरुष आज भी स्त्री को उसी परंपरा के घेरे में देखना चाहता है ,जो तलाक का सबसे बड़ा कारण बनता है | तलाक़शुदा स्त्री-पुरुष को समाज में आज भी उपेक्षित नजरों से देखा जाता है ,और तलाक के बाद कोई जरूरी नहीं कि दुबारा सब अच्छा ही हो | कई बार तो स्थिति पहले से भी बदतर हो जाती है ,,ऐसे में बेहतर तरीका तो यही है कि थोड़ा सा संयम और धैर्य से वैवाहिक जीवन बचाया जाए ताकि एक स्वस्थ समाज व स्वस्थ परिवार की रचना हो | आज के तेजी से बदलते परिवेश में करीब-करीब रोज ही अनगिनत शादियाँ तलाक की बलि चढ़ रही हैं ,इसका सबसे बड़ा कारण रिश्तों में धैर्य एवं सहनशीलता का अभाव है | दुनियाँ में कोई ऐसा इंसान नहीं जिसमें सिर्फ अच्छाइयाँ ही हो,हर इंसान में कुछ न कुछ अच्छाई-बुराई होती ही है | और फिर यह जरूरी भी तो नहीं कि तलाक के बाद जीवन बिलकुल सुखमय हो जाएगा | वैवाहिक जीवन के रिश्ते भावनाओं की नीव पर खड़े होते हैं , यह कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं कि जब तक चाहा तब तक खेले और फिर परे झटक दिया | देश में हर साल एक करोड़ से भी अधिक जोड़े विवाह बंधन में बंधते हैं ,पर तलाक के केस भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे हैं | अब कानून भी विवाहित जोड़ों को आसानी से संबंध-विच्छेद करने में सहायताकर रहा है | पहले लोग समाज में जगहंसाई के चलते इस बात पर ज्यादा नहीं सोच पाते थे और जिससे भी शादी होती थी अपने भाग्य का अंश समझकर सहज स्वीकार लेते थे,पर अब तलाक लेना परिवार का मामला न होकर पति-पत्नी का निजी मामला है जिसमें किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है | दिन-बदिन तलाक की दरों में इजाफा ही हो रहा है , आज लड़की अपने पैरों पर खड़ी , अपने कैरियर बनाने की होड में वह अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान दे पाती है फिर वही से शुरुवार होती है संबंध-विच्छेदन का | तलाक लेना मानसिक व सामाजिक पीड़ा के साथ-साथ खर्चीला भी है और तलाक की प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि उसके बाद जीवन जीने का उत्साह ही क्षीण हो जाता है | पर विडंबना यह है कि इतनी सारी दिक्कतों के बाद भी आज हमारे समाज में तलाक के केस सबसे ज्यादा हो रहे हैं |
संगीता सिंह ‘भावना’
वाराणसी
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