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”समय की देहरी पर स्त्री”

sangeeta singh bhavna
sangeeta singh bhavna
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बीते कुछ दिनों से फेसबूक पर यह जुमला अक्सर ही पढने को मिल जा रहा है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है | पर जरा गौर करिए तो पाएंगे कि औरत पीछे कहाँ है …? वो तो बुनियाद में होती है | बुनियाद की ईंटें जिस पर लम्बी -चौड़ी दीवार खडी तो हो जाती है ,पर वो ईंटें कहीं दिखाई नहीं पड़ती | ठीक ऐसा ही हाल औरतो के साथ भी होता है ,माँ ,पत्नी,प्रेयसी,दोस्त जीवन के हर पहलू में वह किसी न किसी रूप में मौजूद होती है पर समाज में अभी भी उसकी हालत बहुत ही नाजूक है | परिस्थितियां बदली समय बदला पर नहीं बदली औरतो की भूमिका ! युगों-युगों से औरतो का शोषण घर में ही सबसे अधिक होता है,कभी पति द्वारातो कभी परिवार द्वारा | नारी को घर की लक्ष्मी की संज्ञा दी जाती है ,पर यह लक्ष्मी क्या सच में लक्ष्मी बन पति है ……?? उन्हें तो अपनी बात कहने की भी स्वतंत्रता नहीं होती है,उसके लिए भी उन्हें किसी न किसी पुरुष का ही आड़ लेना होता है | वह कभी किसी की बेटी तो कभी किसी की पत्नी तथा कभी किसी की बहु बनकर ही समाज में टहलती रहती है ,उसका खुद का कोई वजूद नहीं होता है | सच मानें तो उनकी परवरिश ही यही कहकर किया जाता है कि ‘बेटी हो बेटी की तरह रहो’ | पुरुष आज भी अपनी सोच से उबर नहीं पाया है,वह आज भी नारी को बराबरी का दर्जा देने में हिचकता है | ये अलग बात है चौराहे पर खड़े होकर नारी के पक्ष में भाषण देना वह बखूबी जनता है,पर जब नारी की बराबरी की बात आती है तब वह कभी पारिवारिक दबाव तो कभी सामाजिक बेड़ियों में जकड़ दी जाती है | सामाजिक व्यवस्था की जकड़न और पुरुष प्रधान मानसिकता तथा स्त्री मुक्ति कार्यकर्म के बावजूद आज भी स्त्री अपनी मुकम्मल पहचान की तलाश में है | यह एक कोरा सच है कि,जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री की मौजूदगी और सहयोग जरूरी है,पर पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को घर-परिवार,समाज में शोषित एवं उत्पीडित होना पड़ रहा है | आज नारी अपने मूल को खोती जा रही है ,वह डरी सहमी है और इन्ही मानसिकता से जूझते-जूझते वह जीवन का एक महत्वपूर्ण समय यूँ ही गँवा देती है | पुरुष चाहे कितना भी पढ़ा-लिखा क्यों न हो ,ज्यादातर पुरुषों की नजर में औरत सिर्फ घर की साज-सज्जा बढाने की चीज होती है | इसी मानसिकता को देखते हुए मैंने एक कहानी लिखी थी ”बोझिल प्रारंभ” जो हाल ही में बिहार के लोकप्रिय पत्रिका ‘जनपथ’ में प्रकाशित भी हुआ और खूब सराहा भी गया | तमाम उच्च मानदंडों के बावजूद आज भी स्त्री पुरुष के लिए भोग की वस्तु है ,और वह उसे अपने अधीन समझता है | हालाँकि आज नारी ने भी अपनी अस्मिता के प्रति काफी सजगता दिखाई है और अपना एक मजबूत आधार बनाने में तत्पर दिखाई दे रही है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण वो ”स्त्री लेखन” के रूप में प्रस्तुत कर रही है | ऐसा कर वह कुछ समय के लिए ही स्वतंत्रता का अनभव करती है | अपने अंतर्मन के भावों को पन्नों पर उकेरकर अपने मन-मस्तिष्क को संतुष्ट करती है | भले ही थोड़े समय के लिए सही पर इन क्षणों में वह अपनी पीड़ा को भूल जाती है ,और अपनी अहमियत को समाज के सामने परोसती है |

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